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लालच की उम्र (कहानी)

विधि के विधान से मनुष्य, गधे, कुते और गिद्ध को बीस-बीस वर्ष की आयु प्राप्त हुई। बाकी तीनों प्राणियों को तो संतोष हो गया, परन्तु लालची मानव का मन न भरा। जैसे ही उसने उन्नीस वर्ष की आयु पूर्ण की, वह चिन्तित हो उठा। मात्र एक बरस की जिन्दगी और बची थी उसके पास! दिन का चैन और रातों की नींद हराम हो गई। सोचने लगा, “अभी तो मैंने कुछ नहीं किया इस दुनिया में आकर। सारे काम अधूरे पङे हैं। और यह मौत बैरन बस आयी ही चाहती है। अब क्या होगा?”

कई दिनों तक वह सोचता रहा कि कैसे इस मुसीबत को टाला जाये। यहाँ तक कि सोचते-सोचते यूँ ही दिन बीत जाता, परन्तु कोई उपाय न सूझता। आखिर एक दिन उसने निश्चय किया कि किसी भी तरह थोङी और आयु प्राप्त की जाये।
“लेकिन कैसे?”- एक नया सवाल खङा हो गया।
“अरे! यह भी कोई बात हुई? वह मनुष्य है! विधाता ने उसे बुद्धि दी है! कैसे भी करेगा!”- तुरन्त जवाब भी मिल गया।
उसने फिर दसों दिशाओं में अपने दिमाग के घोङे दौङा दिये।

घोङे बङे कामचोर निकले। न जाने कहाँ जाकर सो गये। आज दस दिन हो गये, लेकिन अभी तक मानव भाई की सुध तक नहीं ली कमबख़्तों ने।

आखिर ग्यारहवें दिन एक घोङे ने न जाने कैसे कृपा की कि वह चला आया। काफी प्रसन्न दिखायी दे रहा था। ज़रूर कोई समाधान खोजकर लाया था वह।
आते ही मानव भाई ने बेसब्री से पूछा, “लाये हो कुछ?”
घोङा बोला, “अजी कुछ क्या, सब-कुछ उठा लाया हूँ! अभी सुनोगे तो बाछें खिल उठेंगी।”
“तो सुना डालिए न! देर किस बात की!”
मानव भाई की उतावली देखकर घोङे ने विस्तार से अपनी रिपोर्ट पेश की।
घोङे की रिपोर्ट सुनकर मानव भाई ऐसा खुश हुआ मानो उसे कुबेर का खजाना मिल गया हो। वह तुरन्त घर से निकल पङा।

सतयुग का जमाना था। कहते हैं उस जमाने में पशु-पक्षी भी इंसान की तरह बोलते थे। मानव भाई शुभ शकुन लेकर घर से निकला था सो जाते ही उसे एक चरागाह में घास चरता हुआ उसका हमउम्र दोस्त गधा मिल गया। वह बङा खुश हुआ। पास जाकर बोला- “जै रामजी की गर्दभ भाई!”
“जै रामजी की..जै रामजी की…मनुआ भाई! कहो, आज कैसे कृपा की?”- गधे ने चरने का काम जारी रखते हुए पूछा।
“क्या करूँ भाई, काम ही ऐसा आन पङा कि न चाहते हुए भी आना पङा!”- मानव भाई ने एक पेङ की छाया में बैठते हुए जवाब दिया।
“ऐसा कौनसा काम आन पङा भाई?”- गधे ने तनिक गर्दन उठाकर पूछा।
“पास तो आ यार! बैठकर बात करेंगे!”
गधा मानव भाई के पास आकर बैठ गया।
मौका देख मानव भाई बोला- “यार गर्दभभाई! यह ब्रह्माजी तो ससुरा बङा अन्यायी है रे! उपर से जितना सीधा-सादा दिखता है, अन्दर से उतना ही कुटिल है यह।”
“वह कैसे भाई?”- गर्दभभाई ने असमंजस के भाव से पूछा।
“देखते नहीं, कछुए को तीन सौ वर्ष, मोर को डेढ़ सौ वर्ष और साँप को सौ वर्ष की आयु दे डाली उसने। क्या करेंगे भला ये इतनी उम्र का? और इधर हमें? बाप रे बाप, बीस-बीस वर्ष की आयु देकर झुठला दिया! अब तुम्हीं बताओ, यह हमारे साथ अन्याय है कि नहीं?”
भोला गर्दभ कुछ समझा, कुछ न समझा, पर उसने हामी भर ली। मानव भाई अपनी सफलता पर मन ही मन मुस्कुरा उठा। उसका तीर अचूक साबित हुआ। बोला-“तो चलें ब्रह्माजी के पास?”
“क्यों?”
“और आयु लाने के लिए!”
गर्दभभाई सुबह से भूखा था। अभी चरने के लिए चरागाह में आया ही था कि मानव भाई आ पहुँचा था। इस समय अपने पेट पर संकट आया देख वह बोला- “पर..पर…मेरा पेट..ख..खा…..! ”
“अब यह पर-वर छोङो और चलो जल्दी! क्या तुम जानते हो कि एक वर्ष बाद तुम मरने वाले हो?”
“क..क…क….क्या?”- भौंचक्का रह गया गर्दभभाई।
“हाँ! जल्दी करो, वरना हम यहीं मर जायेंगे।”
गधा पूँछ फटकार कर बोला- “तब तो जल्दी चलो भाई!”
यह सुनकर मानव भाई ऐसा खुश हुआ मानो उसने कोई बहुत बङा मैदान मार लिया हो।
दोनों वहाँ से रवाना हुए। रास्ते में गर्दभभाई पूछने लगा- “पर मनुआ भाई, ये ब्रह्माजी हमें मिलेंगे कहाँ?”
“भाई! ब्रह्माजी की तो बाद में सोचेंगे, पहले हमारे दो हमउम्र दोस्त कुता और गिद्ध तो मिलें!”
“क्या वे भी अपने साथ ही मरेंगे?”- भोला गर्दभ पूछ बैठा।
“क्या तुम भूल गये? ब्रह्माजी ने हम चारों प्राणियों को एक साथ ही बनाया था!”
तभी गर्दभभाई बोला-“वह देखो मनुआ भाई! वह बैठा गिद्धवा भाई…..उस पेङ पर।”
मानव भाई ने देखा, एक ऊँचे पेङ पर गिद्धराज बैठा पंख खुजा रहा था।

एक क्षण में दोनों गिद्ध के पास जा पहुँचे। देखा, पास में एक पशु मरा पङा था। चील, कौआ और कुत्ता उस पर छाए हुए थे। कुत्ते और गिद्ध का एक साथ मिलना मानव भाई के लिए बहुत बङी खुशी की बात थी। वह फूला न समाया। गधे ने भी अपनी खुशी व्यक्त करने के लिए एक मीठा-सा तराना छेङ दिया- “ढेंचू…ढेंचू…ढेंचू…ढेंचू…ढेंचू…ढ़ेंचू…..!”
सभी जानवर चौंक गये।
इसके बाद दोनों एक पेङ के नीचे बैठ गये और ईशारे से गिद्ध को बुलाया। वह पेट भर चुका था, सो तुरन्त उड़कर चला आया। फिर कुत्ते को बुलाया, तो वह अकङकर बोला- “हम नाहीं आते, ससुर बङी मुश्क़िल से मौका मिला है आज!”
कहकर वह पशु की खाल खिंचता हुआ पीछे सरकने लगा।
मानव भाई ने चिरौरी की- “कुत्ते भाई! ज़रा एक बार आओ तो सही! एक मिनट से ज्यादा नहीं रोकूंगा! भगवान-कसम!”
“बोला न बाप, हमें फुर्सत नाहीं!”- कहकर वह मांस नोचने लगा।
मानव भाई को बङा गुस्सा आया।
वह हाथ में छङी लेकर कुत्ते की तरफ लपका। कुत्ते ने हाथ जोङ दिए और गिङगिङाकर बोला- “हं.हं..हं..हं..हं… मानव भाई, काल्हि से हमरा पेट खाली पङा है..!”
मानव भाई उसे हङकाते हुए बोला- “ससुर पेट भरना तो रोज का काम है! लेकिन क्या कभी भरा है आज तक? यह पेट, यह भूख सब यहीं रहेंगे। नहीं रहेंगे तो सिर्फ हम! बहुत कम जिन्दगी बची है अब हमारी। कल को मर जायेंगे हम यूँ ही, समझे?”
मानव भाई की फटकार सुनकर कुत्ता सीधा पेङ के नीचे चला आया।

मानव भाई तीनों प्राणियों को समझाने लगा- “मेरे भाईयों! आपने कभी सोचा भी नहीं होगा कि इस जगत के पालक अर्थात् ब्रह्माजी भी इतने बङे अन्यायी हो सकते हैं कि एक महत्वहीन और तुच्छ प्राणी तो तीन सौ वर्ष की आयु दे दी और हम जैसे बुद्धिमान और मेहनती प्राणियों को मात्र बीस-बीस वर्ष की आयु देकर झुठला दिया। यह हमारे साथ धोखा है, भेदभाव है, घोर अन्याय है, जो सिर्फ हमीं चार प्राणियों के साथ हुआ है। हमारी आयु अब पूरी होने के कगार पर है। हमने अभी कुछ नहीं देखा दुनिया में आकर! कल जन्मे थे, आज बूढ़े हो गये और कल मर जायेंगे। और अब हम कुछ कर भी नहीं सकते, क्योंकि हम चंद दिनों के मेहमान हैं। हमारा जन्म लेना ही निर्रथक रहा। (तेवर बदलकर) लेकिन अब हम लङेंगे इस अन्याय के खिलाफ! मिलकर लङेंगे! और तब तक लङेंगे, जब तक हमें न्याय नहीं मिलेगा, ब्रह्माजी हमें पूरी आयु नहीं देंगे! तो मेरे प्यारे भाईयों! समय बहुत कम बचा है, इसलिए आज ही हम चारों प्राणी ब्रह्माजी के पास चलते हैं!”

मानव भाई के इस वक्तव्य ने तीनों ही प्राणियों पर वशीकरण का काम किया और वे चारों तत्काल वहाँ से रवाना हो गए।
ब्रह्म-मुहुर्त का समय था। ब्रह्माजी स्नान के लिए घर से निकलने ही वाले थे कि चारों प्राणियों ने अचानक किसी देवशक्ति की भाँति प्रकट होकर उनके चरण थाम लिए। इस अप्रत्याशित हरकत से ब्रह्माजी सकते में आ गए। उन्होंने पैर छुङाने की कोशिश की, तो पकङ और मजबूत हो गई। ब्रह्माजी लाख कोशिश करके भी पैर नहीं हिला पाये। उनकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। वे साहस कर बोले- “कौन हो भाई? मुझे क्यों पकङ लिया सवेरे-सवेरे ही?”
मानव भाई अपनी पकङ मजबूत करते हुए बोला- “हम मृत्युलोक के वे चार प्राणी हैं, जिनके साथ आपने घोर अन्याय किया है।”
“कौन चार प्राणी?”
मानव भाई ने चारों के नाम गिनाये।
ब्रह्माजी कसमसाकर बोले- “पर अन्याय कैसा?”
मानव भाई बोला- “हम जैसे बुद्धिमान और मेहनती प्राणियों को मात्र बीस-बीस वर्ष की अल्पायु देकर झुठलाना अन्याय नहीं तो और क्या है?”
ब्रह्माजी समझाने लगे- “देखो प्यारों! मैंने बहुत सोच-समझकर आपको आयु दी है। मेरी मानो तो आप और आयु न लो, वरना बहुत पछताओगे! अब मेरे पैर छोङो, मुझे ब्रह्म-स्नान में देरी हो रही है!”
यह सुनकर चारों को बहुत बङा धक्का लगा। मानव भाई बोला- “हमें बहलाने-फुसलाने की कोशिश मत करो! समझ लो, आज हम आयु लेकर ही रहेंगे।”
और उन्होंने चौगुनी ताकत से ब्रह्माजी के पैरों को कस लिया।
ब्रह्माजी पीङा से कराह उठे। उनको अपनी जिन्दगी में आज पहली बार ऐसे प्राणियों से साबक़ा पङा था। उन्हें लगा, जैसे उनके पैर टूटने को हैं। वे घबरा उठे। पसीने से लथपथ हो गए। सोचा, कुछ दिए-दिलाए बिना आज खैर नहीं। वे हारकर बोले- “आप जीते, हम हारे! मैं आपको आयु देने के लिए तैयार हूँ….अब मेरे पाँव छोङो!”
मानव भाई अविश्वास के भाव से बोला- “हमें भरोसा नहीं है आप पर! कहीं पाँव छूटते ही आप भाग खङे हों तो?”
ब्रह्माजी ने अपने पुत्र नारद की कसम खाकर कहा-“बिल्कुल नहीं भागूंगा।”
मानव भाई को फिर भी विश्वास नहीं हुआ, बोला- “अपनी ब्रह्माणी की सौगन्ध खाओ!”
ब्रह्माजी ने झट से ब्रह्माणी की सौगन्ध खाकर पाँव छुङाए। कई देर से उनके पैरों का रक्त-प्रवाह रुका हुआ था। पाँव छूटते ही अचानक रक्त का प्रवाह शुरु हुआ तो उन्हें चक्कर आ गया और वे गिरते-गिरते बचे। बोले- “देखो प्यारों! इस समय हमारे उम्र-खजाने में सिर्फ अस्सी वर्ष की आयु शेष है इसलिए आपको बीस-बीस वर्ष की आयु और मिलेगी।”
यह सुनकर मानव भाई बहुत निराश हुआ। बोला- “हम कितनी बङी उम्मीदें लेकर आए थे, लेकिन आपने हमारी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। देकर भी आपने कुछ नहीं दिया! फिर वही बीस वर्ष की आयु! फिर वही अन्याय! देखना, मैं जाते ही ‘ब्रह्माजी का एक और घोर अन्याय’ शीर्षक से एक विशाल ग्रंथ लिखूंगा और पूरे मृत्युलोक में उसका जमकर प्रचार-प्रसार करूँगा!”
ब्रह्माजी धर्मसंकट में पङ गए। सोचा, यह मूर्ख मृत्युलोक में मेरा अपयश फैलायेगा, मुझे बदनाम करेगा, जलील करेगा! अब क्या करुँ?

सहसा ब्रह्माजी को एक उपाय सूझ गया, बोले- “देखो प्यारों! मैं आपको इससे ज्यादा उम्र तो नहीं दे सकता, क्योंकि खजाना अभी खाली है, लेकिन यह जो बीस-बीस वर्ष की आयु मैं आप लोगों को देने जा रहा हूँ इसकी एक विशेषता है कि आप इसे दूसरे प्राणी को दान भी कर सकते हैं।”
“क..क..क…क्या मतलब?”- मानव भाई ने आश्चयर्य से पूछा।
मतलब यह कि अगर आप चारों में से कोई भी अपनी आयु से तंग आ जायेगा अथवा अपनी आयु पूरी करने में असमर्थ हो जाएगा, तो वह मुझे साक्षी देकर अपनी बची हुई आयु आप में से किसी भी एक प्राणी को दान कर सकेगा। उदाहरणार्थ, मान लीजिए गधे ने पच्चीस वर्ष की आयु पूर्ण कर ली तथा अब वह और ज्यादा नहीं जीना चाहता, तो ऐसी स्थिति में वह अपनी बची हुई पन्द्रह वर्ष की आयु आप तीनों प्राणियों में से किसी भी एक प्राणी को दान कर सकता है। इतना ही नहीं, अगर आप प्रकृति के नियमों का पालन करोगे, जीवन में संयम बरतोगे, सबके साथ अच्छा व्यवहार करोगे, तो आपकी आयु बढ भी सकती है। कहो, अब तो खुश हो न?”
मानव भाई को यह फैसला कुछ-कुछ अपने पक्ष में लगा। बोला- “हाँ, अब ठीक है।”
ब्रह्माजी मानव भाई की रग-रग पहचानते थे। वे यह भी जानते थे कि यह सारी आयु अन्ततः मानव ही प्राप्त करेगा और वह तानाशाह बन जायेगा अतः उन्होंने कुछ मर्यादाऐं निश्चित करना जरुरी समझा। बोले- “लेकिन इस दान की जाने वाली उम्र की एक शर्त भी है और वह यह कि इसे आप श्रेष्ठ कर्म करने पर ही भोग सकेंगे। यदि आप बुरे कर्म करेंगे, तो यह आयु आपके किसी काम नहीं आयेगी।”- कहकर ब्रह्माजी ने अपने खजांची को आयु बांटने की आज्ञा दे दी।
खजांची ने तुरन्त आज्ञा का पालन किया और चारों को बीस-बीस वर्ष की आयु दे दी।
आयु ग्रहण कर बाकी तीनों प्राणी तो बहुत खुश हुए लेकिन मानव भाई के चेहरे से असंतोष की छाया नहीं हट सकी। वह ब्रह्माजी से बोला- “आपके खजाने में सचमुच ही आयु नहीं है या हमें यूँ ही बरगला रहे हो?”
ब्रह्माजी मुस्कुराकर बोले- “प्यारे! ब्रह्म कभी झूठा नहीं होता।”
यह सुनकर मानव भाई खिसिया गया।

“अच्छा, तो अब आप लोगों का काम हो चुका है…कृपा करके यहाँ से जाइए…मुझे ब्रह्म-स्नान में देरी हो रही है!”- कहकर ब्रह्माजी उठे और स्नान करने चल दिए। यह देख चारों ने अपनी राह ली।

रास्ते में बातों का पिटारा खुल गया। मानव भाई सब पर रौब जमाते हुए कहने लगा- “मूर्खों! अगर मैं नहीं होता तो बीस वर्ष तो क्या, कोई तुम्हें एक दिन की भी आयु नहीं देता!”
“अरे! काहे को घमण्ड करते हो मनुआ भाई! अगर मैं सबसे पहले तुम्हारे साथ नहीं होता तो क्या तुम आते?”- कहकर गर्दभभाई मारे खुशी के चारों पैरों पर उछला और ऊँचा मुँह करके गा उठा- “ढें..चू…ढें.चू…ढेंचू…ढेंचू….ढेंचू….ढेंचू…..ढेंचू………..!”
गर्दभभाई ने जब कई देर तक अपना सुर नहीं तोङा तो मानव भाई का धैर्य जवाब दे गया और उसने गर्दभभाई के मुँह पर एक जोरदार मुक्का जङ दिया। तभी कुत्ता बोला- “ससुरे! ऐह भी कोई गाना भया? हमसे ज्यादा तो ज्यादा तो जीवेला नाहीं, काहे को ढेंचू ढेंचू बक रहेवा है?”
मानव भाई अभिमानपूर्वक बोला- “ब्रह्माजी से आयु प्राप्त करने का विचार सबसे पहले मेरे दिमाग में आया। क्या आप तीनों में से किसी एक ने भी सोचा था कभी इस बारे में? सोचोगे कहाँ से? सोचने के लिए दिमाग चाहिए.. दिमाग! अगर तुम्हारे पास दिमाग ही होता तो यह बात मुझसे पहले आप न सोचते।”
गिद्ध भाई ने प्रतिवाद किया- “वह सब तो ठीक है मानव भाई, पर क्या इस कार्य में हमारा बिल्कुल भी योगदान नहीं रहा?”
वाह रे घमण्ड वाह! जब लट्ठ लेकर पीछे पङा तो सब मुँह लटकाकर चले आये। और अब आयु मिलते ही फिर मुँह लटकाकर चल दिए। इसे ही कहते हो तुम योगदान? यही है तुम्हारा……………!”
“बप्पा रे… तुम सब बङा और हम छोटा! अब ऐह लङाई-झगङा भी बन्द करेवा कि नाहीं?”- कुत्ता बीच में ही बोल पङा।

इसी तरह हँसते-गाते, उछलते-कूदते, लङते-झगङते, दौङते-भागते चारों घर पहुँचे।

क्षुधा से व्याकुल कुत्ता जब उस मृत पशु के पास पहुँचा तो उसे घोर निराशा हुई। पशु की हड्डियाँ तक खायी जा चुकी थी। वह भोजन की तलाश में इधर-उधर भटकने लगा। भटकते-भटकते पूरा दिन निकल गया, लेकिन खाने को कुछ नहीं मिला। इधर पेट की अग्नि थी कि बढ़ती ही जा रही थी। मजबूर होकर वह एक घर में घुसा तो दोहरी मार खायी। भूख और पीङा से बेहाल वह रोता हुआ जंगल की तरफ भागा।

दूसरे दिन ईश्वर की कृपा से उसे एक मृत पशु मिल गया। भोजन क्या मिला मानो भगवान मिल गया। दस-पन्द्रह दिन बङे मजे में कटे। लेकिन जैसे ही यह पशु खत्म हुआ, फिर वही पुरानी समस्या पैदा हो गयी। तीन-चार दिन तक वह इधर-उधर भटका, परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ। हार मानकर उसे बस्ती की शरण लेनी पङी।
शाम का समय था। कुत्ता भाई एक घर के सामने खङा मौके की तलाश कर रहा था। उसे यहाँ खङे काफी देर हो चुकी थी, लेकिन अभी तक कोई सफलता नहीं मिली थी। वह जैसे ही घर में घुसने का साहस करता, कोई न कोई आ जाता और उसे वापिस पैर खींचने पङते। कहते हैं सच और भूख को दबाया नहीं जा सकता। लाचार होकर वह घर में घुसा, लेकिन अन्दर घुसते ही वह मार खाकर वापिस भागा। दूसरे घर में घुसा तो एक टांग तुङवा बैठा। चीखता-चिल्लाता वह फिर जंगल की तरफ भागा।

चार दिन तक उसे कुछ नहीं मिला। भूख और पीङा से उसका शरीर आधा रह गया था। वह बेदम-सा होकर एक टीले पर बैठ गया और सोचने लगा, “ऐसे जीवन से तो सौ बार मरना भला! ससुरा ऐह भी कोई जीवन भया! भूखे मरते रहो और अगर किसी हांडी-कुल्हङ में मुँह डालो तो सीधे टांग तुङवाओ! परमात्मा रे परमात्मा! हमको उठा ले रे! …अब और ज्यादा नाहीं जीया जाता…!”
इसी तरह वह काफी देर तक सोच-विचार करता रहा। अन्त में वह उठा और टांग घसीटता हुआ मानव भाई के पास पहुँचा। यहाँ आकर देखा, गर्दभभाई मानव भाई को अपनी आयु दान कर रहा था। यह देख उसे बहुत बल मिला।

अपनी आयु दान कर बिना कुत्ते की ओर ध्यान दिए गर्दभभाई सरपट भाग निकला। इस भय से कि कहीं मानव भाई बुलाकर उसे उसकी दान की हुई आयु वापस न कर दे।

गर्दभभाई के चले जाने के बाद मानव भाई ने कुत्ते की ओर देखा। बङी दयनीय हालत थी। उसकी दुर्दशा देखकर वह मन ही मन बङा प्रसन्न हुआ, परन्तु उपर से अत्यंत हमदर्दी दिखाकर बोला- “यह क्या है कुत्ते भाई? किसने की तुम्हारी यह हालत?”
“ऐह सब तुम्हरी आयु की कृपा है!”
“पर तुम्हारी यह हालत हुई कैसे?”
कुत्ते ने सारी रामकहानी सुनायी। मानव भाई ने दिखावाटी सहानुभूति दिखाते हुए कुत्ते को सांत्वना दी। लेकिन कुत्ता अपनी आयु दान करने का फैसला कर चुका था। बोला- “हम काह करेंगे ससुरी इस आयु का! एक महीने में एक टांग टूटी है, तो चार महीने में चारों! बाकी जिन्दगानी पङे-पङे….!” कहकर कुत्ता रोने लगा।
मानव भाई उसे ढाढ़स बंधाते हुए कहने लगा- “निराश मत होओ भाई! अभी तो बहुत लम्बी उम्र पङी है।”
“नाहीं मनुआ भाई, हम यह उम्र नाहीं झेल सकेवा। हम तो आपको ही दान करेवा।”
मानव भाई दिखावाटी ना-नुकर करने लगा, मगर इस भय से कि कहीं कुत्ते का मन न बदल जाये, उसने ज्यादा आनाकानी नहीं की और सहर्ष बीस वर्ष की आयु लेकर अपनी आयु अस्सी वर्ष कर ली।

चार महीने बीत गए।
एक दिन मानव भाई जंगल में लकङियाँ काट रहा था कि वहाँ गिद्ध भाई का आगमन हुआ। बङी दयनीय हालत थी। शरीर अत्यंत कमजोर व जर्जर हो चुका था। गर्दन बाहर को निकल आई थी। आँखें अन्दर धँस चुकी थी। शरीर के लेशमात्र भार से ही उसकी टांगे कांप रही थी।
इसी शुभ दिन के इंतजार में तो बैठा था मानव भाई। देखकर फूला नहीं समाया। बोला- “यार गिद्ध भाई! आयु क्या मिली, तुम तो किनारा ही कर गए!”
गिद्ध भाई अपनी लम्बी गर्दन तानकर कठिनाई से बोला- “क्यों जले हुए पर नमक छिङक रहे हो भाई!”
“अब क्या कहूँ, जब खुद पर बीतेगी तो आप ही मालूम हो जायेगा। खैर, मैं तुम्हें अपनी आयु दान करने आया हूँ। मेरी प्रार्थना है, इसे अस्वीकार मत करना।
“अरे नही नहीं, मेरे पास पहले से ही बहुत आयु है। मैं क्या करूँगा इतनी आयु का?”
“मना मत करो भाई! बङी उम्मीद लेकर तुम्हारे पास आया हूँ! मुझे बचा लो मेरे भाई!”- कहकर गिद्ध भाई ब्रह्माजी को साक्षी देकर अपनी आयु दान कर बैठा।
मानव भाई ऐसा खुश हुआ मानो उसे नौ निधियों का सुख मिल गया हो। उसकी आयु अस्सी से बढ़कर सौ वर्ष हो गयी थी। वह अपनी खुशी को समेट पाने में भी असमर्थ था।

मानव भाई ने विधि के विधान से प्राप्त बीस वर्ष की आयु पूर्ण कर इक्कीसवें वर्ष में प्रवेश किया। उसकी शादी हो गयी और वह सब-कुछ भूलकर प्रेम के सागर में डूब गया। थोङे समय बाद जब उसके बाल-बच्चे हो गए, तो वह कमाने लगा। ज्यों-ज्यों परिवार बढ़ता गया, आवश्यकताऐं भी बढ़ती गई। चूँकि वह एक जिम्मेदार गृहस्वामी था अतः घर के प्रत्येक सदस्य को खुश रखना अपना कर्त्तव्य समझता था। पत्नी व बच्चों की खुशी के लिए वह खूब मेहनत करता और रोज उन्हें नई-नई चीजें लाकर देता। उसने एक सुन्दर-सा घर भी बनवा लिया था। कुल मिलाकर उसकी गृहस्थी जम गई और घर में चारों तरफ खुशियाँ छा गई। इस प्रकार मानव भाई ने हँसी-खुशी के साथ चालीस वर्ष की आयु पूर्ण कर ली।
अब शुरु हुई गधे द्वारा दान की हुई आयु। गधे का स्वभाव होता है रुखे-सूखे की परवाह किए बिना हाङतोङ मेहनत करना।
अब चूँकि मानव भाई के बाल-बच्चे बङे हो चुके थे अतः वह उनके ब्याह के लिए दौङ-धूप करने लगा। घर को विकसित करने तथा बढ़ती हुई जरूरतों को पूरा करने के लिए रात-दिन मेहनत करने लगा। पहले जहाँ वह खाने-पीने और मौज-मस्ती में ही सारी कमाई उङा देता था, वहीं अब पाई-पाई जोङने लगा। उसकी संचय की प्रवृति बढ़ गई थी और स्वभाव में काफी हद तक लालच भी आ गया था। वह भूख-प्यास की परवाह किए बिना रात-दिन गधे की तरह परिश्रम करने लगा। नतीजा यह हुआ कि बच्चों का विवाह तो हो गया, लेकिन मानव भाई की शारीरिक शक्ति क्षीण होने लगी और वह बूढा दिखाई देने लगा। इस प्रकार मानव भाई ने साठ वर्ष की आयु पूर्ण की।

अब शुरु हुई कुत्ते द्वारा दान की हुई आयु। कुत्ता चापलूस स्वभाव का प्राणी होता है। उसका काम होता है घर की रखवाली करना। भोजन के वक्त वह घर के सदस्यों की तरफ आशा भरी निगाहों से ताकता रहता है। मानव भाई के साथ भी यही हुआ। घर में अब बेटे-बहुओं का अधिकार हो गया था। पहले जहाँ उसकी सलाह के बिना घर का कोई काम न होता था, वहीं अब उसे कोई पूछना भी जरुरी नहीं समझता था। बङे लङके ने आँगन के हटकर एक झौंपङी बना दी थी, वही अब मानव भाई की दुनिया थी। दिनभर वह बैठा-बैठा कुत्ते की तरह घर की रखवाली करता रहता। बहुओं को उसका ठाले बैठे रहना कतई पसंद नहीं था। वे उसे खूब ताने देती और कभी-कभी तो झगङा तक करने पर उतारू हो जाती।
लङके भी कम नहीं थे। उसे हमेशा किसी न किसी काम में जोते रखते। स्वार्थी मानव भाई को अब ज्ञान हुआ कि आयु ग्रहण कर उसने बहुत बङी गलती की। अगर उस समय ज्यादा आयु का लालच नहीं किया होता तो आज ये दिन नहीं देखने पङते। इस प्रकार मानव भाई ने कुत्ते से भी बदतर जिन्दगी जीते हुए अस्सी वर्ष की आयु पूर्ण की।

अब शुरु हुई गिद्ध द्वारा दान की हुई आयु। कहते हैं गिद्ध का बुढ़ापा बहुत भयंकर होता है। उसके चोंच, पंजे, कान तथा आँखें काम करना बन्द कर देते हैं। अब चूँकि मानव भाई भी गिद्ध की ही जिन्दगी जी रहा था अतः उसकी गिद्ध जैसी दुर्दशा होना लाजिमी था और यही हुआ। उसकी हालत अत्यन्त शोचनीय हो गई। आँखें अन्दर धँस गई, गाल पिचक गए, शरीर हड्डियों के ढ़ाँचे में तब्दील हो गया, सुनना बन्द हो गया तथा गर्दन लम्बी होकर गिद्ध की तरह बाहर निकल आयी थी। खटिया पर पङा-पङा वह दिनभर अपने आपको कोसता रहता और बार-बार भगवान से अपनी मृत्यु की प्रार्थना करता रहता। भोजन का वक्त होने पर घुटनों के बल बैठ जाता और गिद्ध की तरह गर्दन निकाल-निकालकर आँगन की ओर ताकने लगता।

अन्त में मानव भाई की जो दुर्दशा हुई, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उसका बुढ़ापा गिद्ध से भी कहीं भयंकर बीता और एक दिन ऐसा आया, जब मानव भाई अपने ही लालच और स्वार्थ के कालकुण्ड में समा गया। कितनी भयंकर थी यह स्वार्थी मौत!

लेखक : मेघराज रोहलण ‘मुंशी’

हृदय परिवर्तन (कहानी)

गाँव में सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं किसी पक्षी के चहकने तक की आवाज न थी। लोग डर के मारे अपने-अपने घरों में दुबके बैठे थे। सभी निराश-हताश, डरे-सहमे-से मानो यमराज का इंतजार कर रहे थे। कहीं कोई नादान बच्चा मुँह खोलता तो माता-पिता द्वारा आवाज निकलने से पहले ही उसका मुँह ढांप दिया जाता था। धमनियों में रुधिर की जगह भय दौङ रहा था। रक्त जैसे जम गया था। मुँह मानो प्रचंड अग्नि ने झुलस दिया हो। शरीर पाषाण बन गया हो और साँसे जैसे रुक गयी हो। वृक्षों की पत्तियाँ तक मारे भय के कांप रही थी।

अचानक गाँव की उत्तर दिशा में भयानक शोर सुनायी दिया। सहस्त्रों मनुष्यों और घोङों के दौङने की आवाज धीरे-धीरे पास आने लगी। आकाश में धूल की आँधी छा गयी। शोर उत्तरोतर बढ़ता गया और कुछ ही पल में डाकुओं की एक बङी सेना गाँव की चौपाल में आ डटी।

लोगों को काटो तो खून नहीं। भय से थर्र-थर्र काँप उठे। हृदय न चाहते हुए भी उछल-उछल पङता था। परीक्षा की विकट घङी थी। आँखों के सामने मौत नाचती थी। सभी आँखे बंद किए अपनी-अपनी मृत्यु का इंतजार कर रहे थे। कोई मन ही मन अपने इष्टदेव का स्मरण कर रहा था तो कोई सपरिवार स्वंय को ईश्वर के चरणों में डाले बैठा था। भय का बङा ही दारुण नज़ारा था यह।

डाकू संग्राम सिंह ने चौपाल के चबूतरे पर खङे होकर अपने सैनिकों को आदेश दिया- “मेरे विश्वासपात्र सैनिकों! लूट डालो इस गाँव को! और जो कोई जुबान खोले, उसे रस्सी से बाँधकर मेरे पास घसीट लाओ! जाओ…!”
आज्ञा का तुरन्त पालन हुआ। सब के सब घरों में घुस गये। सैनिक सामान ला-लाकर चबूतरे पर जमाने लगे। देखते ही देखते चबूतरे पर ढ़ेर लग गया। संग्रामसिंह बङे गौर से टटोल-टटोलकर सामान को देख रहा था।

तभी.!!!
एक सैनिक एक वृद्ध को घोङे से बाँधे घसीटकर लाया और बोला, “सरदार! इस आदमी ने जोरावरसिंह को ईंट मार दी।”
यह सुनते ही संग्रामसिंह की आँखों में खून उतर आया। वह एक चमङे की बेंत लेकर वृद्ध पर पिल्ल पङा। वृद्ध, जो कि लगभग साठ-पैंसठ की उम्र का था, हर बेंत पर जोर से चीखता था। वह जितने जोर से चीखता था, संग्रामसिंह उतने ही जोर से ठहाका मारकर हँसता था और पास खङे सैनिक तालियाँ बजाते थे। इस पर संग्रामसिंह और भी जोर से बेंत मारता। कुछ ही पल में वृद्ध की खाल जगह-जगह से फट गई और वह खून से लहूलुहान हो गया। उसकी चीखें भी बंद हो गई, लेकिन संग्रामसिंह अब भी उसे बराबर पीटे जा रहा था। पास खङे सैनिक खूब तालियाँ बजा-बजाकर अपने सरदार का मनोबल बढ़ा रहे थे। यहाँ तक कि वृद्ध मर चुका था।
“इस लाश को घोङे पर लाद लो!”- संग्रामसिंह ने एक सैनिक को आदेश दिया।
सैनिक नया था; असमंजस के भाव से बोला- “इस मुर्दे का हम क्या करेंगे सरदार?”
संग्रामसिंह गरजकर बोला- “मूर्ख आदमी! इतना भी नहीं जानता कि हमारे कुत्ते मनुष्य का माँस खाते हैं?”
सैनिक ने सुर झुकाकर आज्ञा का पालन किया।

सारा माल-असबाब इकट्ठा हुआ। उसे बोरों में भर-भरकर घोङों पर लादा गया। सभी सैनिकों ने अपने-अपने घोङे सम्भाले। एक जोर की शंखध्वनि हुई और अपनी विजय का हर्षोल्लास मनाती हुई यह डाकुसेना गाँव से प्रस्थान कर गई।

*****
जेष्ठ मास पूरा सूखा बीत गया। खङी फसल सूखने लगी। किसान वर्षा का इंतजार करते-करते थक गये, पर वर्षा की एक बूंद न बरसी। इन्द्र भगवान लम्बी ताने सोये रहे।

किसानों ने अभी आशा का साथ नहीं छोङा था। वे अब भी आकाश में बादल छाने का इंतजार कर रहे थे, किन्तु जब आधा आषाढ़ बीत गया और वर्षा की एक बूंद न पङी, तो उनकी सारी आशा निराशा में बदल गई। उन्होनें जो सुखमय ख्वाब सँजो रखे थे, उन पर पानी फिरता नजर आया।

वेदीराम इस फसल पर अपनी बिटिया के हाथ पीले करने की सोच रहा था, परन्तु अब उसने उम्मीद छोङ दी थी। माधोराव मकान बनवाने के सपने देख रहा था, परन्तु अब उसे पेट भरना भी मुश्किल जान पङता था। इधर सुखराम ने महाजन का सारा कर्जा चुकाने की प्रतिज्ञा कर रखी थी, परन्तु अब उसे लगने लगा कि इस बार महाजन उसे जीता न छोङेगा। किसानों के मन में जाने कैसे-कैसे अरमान थे, सब मिट्टी में मिल गये। वे चिन्तित हो उठे।

संध्या का समय था। आठ-दस किसान गाँव की चौपाल में बैठे थे। रामू दादा, जो गाँव के सबसे अनुभवी बुजुर्ग थे, निराश होकर कहने लगे- “आस-पास के गाँवों में हमारा ही एकमात्र ऐसा गाँव था, जहाँ आज तक कभी अकाल नहीं पङा। भगवान की कृपा से सदैव अन्न-धन के भण्डार भरे रहे हैं। खेतों ने हमेशा सोना उगला है, पर लगता है इस बार हम भगवान इन्द्रदेव के कोपभाजन बन गये हैं।”
“सबसे खुशहाल और सम्पन्न समझा जाने वाला यह वीरपुरा गाँव इस बार कंगाल हो जायेगा।”- कहकर मदन रुँआसा हो चला।
माधव- “सच कहा भैया! आज तक बैरी अकाल से वास्ता नहीं पङा था। यहीं पैदा हुआ, यहीं पला-बढ़ा, पर कभी अभाव का मुँह नहीं देखा। लेकिन इस बार तो…भगवान ही मालिक है।”
खेमकरण – “आज तक इस गाँव में कभी महामारी नहीं फैली, कभी डाका नहीं पङा, कभी चोरी तक नहीं हुई! कितना खुशहाल था अपना वीरपुरा!”
“क्यों न हम सब मिलकर भगवान इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिए कोई अनुष्ठान करें।”- पटेल काका ने सुझाव दिया।

रामू दादा बोले- “मैं भी पिछले कई दिनों से यही सोच रहा था भैया। अब वर्षा की उम्मीद करना व्यर्थ है। कोरी उम्मीद के सहारे कब तक बैठे रहेंगे? हमें जल्द-से-जल्द कोई उपाय करना चाहिए।”
शुभकरण- “ठीक कहते हो दादा! इन्द्र भगवान को प्रसन्न करने के लिए हमें जल्द-से-जल्द कोई यज्ञ-हवन कराना चाहिए।”
दीनू- “देखो भैया! यह कोई एक आदमी की समस्या तो है नहीं! यह तो पूरे की गाँव की समस्या है, जो मिल-बैठकर ही सुलझायी जा सकती है।”
रामू दादा ने सहमति में सिर हिलाया। तभी गाँव के मुखिया हरि काका भी आ गये। आते ही बोले- “कहो रामू दादा! आज किस बात की मीटिंग हो रही है?”
रामू दादा ने संक्षेप में अपनी बात दोहरायी और पूछा- “तुम्हारी क्या राय है?”
हरि काका खुश होकर बोले- “शुभ काम में देरी कैसी? कहो तो कल ही सारा इंतजाम करवा दूँ!”
यह सुनकर रामू दादा फूले न समाये।

इसके बाद आगे की योजना बनने लगी। तय हुआ कि प्रत्येक घर से पाँच सेर अनाज और दस-दस रूपये उगाहे जाऐं।

दिन उगने की देर थी कि उगाही शुरु हो गयी। उगाही का काम किसनाराम के जिम्मे था। सुखदेव और मदन उसकी मदद कर रहे थे। ग्रामीण बढ़-चढ़कर उगाही दे रहे थे। प्रायः धर्म-कर्म और दान-दक्षिणा को लेकर ग्रामीणों में जो उत्साह हुआ करता है, उससे कहीं ज्यादा उत्साह इस समय वीरपुरा के लोगों में देखा जा सकता था।

मंगलवार के दिन हवन तय हो गया। प्रातःकाल की शुभवेला में सवा नौ बजे का मुहुर्त्त ठहरा। इस स्वर्गिक अनुष्ठान का सारा भार पङौसी गाँव के जाने-माने पण्डित सूर्यनारायण शास्त्री ने अपने कंधो पर लिया।

पौ फटते ही गाँव में चहल-पहल शुरु हो गई। चौक में एक बङा-सा पण्डाल सज गया। एक तख्त पर राम, हनुमान, सीता, श्रीकृष्ण तथा इन्द्र देवता की आदमकद मूर्तियाँ विराजमान हुई। पण्डाल में पानी छिङका गया। दरियाँ बिछायी गयी। बीचों-बीच रस्से बाँधकर महिलाओं और पुरूषों के बैठने की अलग-अलग व्यवस्था की गई। फूलमालाऐं लगायी गयी। नाना प्रकार की सजावट की गई। सब तैयारियाँ पूर्ण थी। कहीं कोई कमी न थी।

साढ़े आठ बजते-बजते पण्डाल खचाखच भर गया। महिलाऐं, बच्चे, बङे-बूढ़े सब चले आये थे। अब बस इन्तज़ार था तो पण्डितजी के पधारने का। लोग बेसब्री से उनकी राह देख रहे थे।

ठीक नौ बजे पण्डित सूर्यनारायण शास्त्री ने अपने तीन सुयोग्य शिष्यों के साथ पदार्पण किया। लोग उन्हें देखते ही निहाल हो गये। पण्डितजी ने आते ही सबको आशीर्वाद दिया और तत्पश्चात वे मंचासीन हुए। उनके शिष्यों ने फटाफट यज्ञ-वेदिका तैयार की और सामग्री सजायी, तब तक पण्डितजी अपने पोथी-पत्रों को फैला चुके थे। ठीक सवा नौ बजे उन्होंने यज्ञ-वेदिका में अग्नि प्रज्जवलित कर हवन शुरु कर दिया।

*****
बबूल के बियावान जंगल के बीच सैंकड़ों तम्बू लगे हैं। तम्बूओं के चारों ओर घोङे खङे हैं। १५-२० ऊँचे-तगङे शिकारी कुत्ते यहाँ पहरा लगा रहे हैं।

इस जंगल में संग्रामसिंह का एकछत्र साम्राज्य है। उसके पास सैंकड़ों घोङे और विश्वासपात्र सैनिक हैं। संग्रामसिंह परले सिरे का धूर्त, निर्दयी और हृदयहीन डाकू है। दूर-दूर तक उसकी धाक है। बच्चे तो क्या, बङे-बूढ़े भी उसका नाम सुनकर पत्ते की तरह कांप उठते हैं। वह आस-पास के कई गाँवों को सफलापूर्वक लूट चुका है।

संग्रामसिंह पुलिस का सबसे महंगा शिकार है। उस पर पचास हजार का नकद ईनाम भी है, लेकिन किसी की इतनी हिम्मत नहीं कि उसे पकङवा सके। यहाँ तक कि पुलिस खुद उससे डरती है। कई बार पुलिस ने जंगल को घेरकर उसे पकङने की कोशिश भी की, परन्तु निराशा ही हाथ लगी। जो पुलिसकर्मी जंगल में उसे पकङने के लिए गये थे, वे लौटकर नहीं आये।

इस समय संग्रामसिंह और उसके सैनिकों के मध्य किसी बङी लूट की योजना को लेकर गहन विचार-विमर्श चल रहा है।
“…इतना ही नहीं सरदार! यह गाँव बहुत खुशहाल भी है। यहाँ के लोग अपने गाँव के नाम के अनुरुप ही बङे वीर हैं।”- एक अनुभवी सैनिक ने बताया।
“और तो और, इस गाँव के तो किसान भी बहुत धनी हैं।”- दूसरे ने समर्थन किया।
संग्रामसिंह – “मैंने सुना है आज तक इस गाँव में कभी डाका नहीं पङा!”
“हाँ सरदार! और गाँव वालों को इस बात का घमण्ड भी है। वे कहते हैं कि इस गाँव में डाका पङना तो दूर, छोटी-मोटी चोरी तक नहीं हो सकती।”
यह सुनते ही संग्रामसिंह आगबबूला हो उठा। मानो किसी ने उसके पुरुषार्थ को चुनौती दे डाली हो, गरजकर बोला – “फोङे जितना-सा गाँव और यह मजाल! वह भी संग्रामसिंह के होते हुए!..हूँ! तुरन्त घोङे निकालो, अब तो वीरपुरा के वीरों का घमण्ड चूर करके ही पानी पियेंगे…..जाओ..!”

आदेश मिलने की देर थी कि डाकू सेना एक क्षण में तैयार हो गई। संग्रामसिंह ने तलवार निकाली और अपने घोङे पर जा बैठा। तत्पश्चात एक समवेत् जयघोष के साथ डाकू सेना ने वीरपुरा के लिए प्रस्थान किया।

*****
इस समय वीरपुरा गाँव भक्ति के रस में डूबा हुआ था। पण्डित सूर्यनारायण शास्त्री जी के सुरीले कण्ठ से मर्यादापुरुषोत्तम राम की महिमा का बखान हो रहा था। श्रोता तन्मय होकर सुन रहे थे। समूचा वातावरण भक्तिमय हो रहा था कि तभी इलाके के खूंखार डाकू संग्रामहसिंह ने अपने दलबल सहित गाँव में कदम रखा। वीरपुरा के लोगों के लिए संग्रामसिंह कोई नया नाम नहीं था। वे उसके हर कारनामे से परिचित थे। जब लोगों ने उन्हें देखा तो होश उङ गये। बच्चे बुरी तरह रोने-चिल्लाने लगे। महिलाऐं उठ-उठकर इधर-उधर भागने लगी। यह देख संग्रामसिंह ने गरजकर कहा- “देखते क्या हो हरामजादों..! रोको इनको….! एक भी न जाने पाये यहाँ से…..!”

डाकुओं ने अपनी-अपनी तलवारें खींच ली और महिलाओं का रास्ता रोककर खङे हो गये। चारों तरफ हाय-तौबा मच गई। जहाँ पल-भर पहले ईद थी, वहाँ अब मुहर्रम हो गया।

तभी एक चमत्कार हो गया। गाँव के मुखिया हरि काका ने मंच पर चढ़कर माईक संभाल लिया और बोले- “भाईयों! यह मत भूलो कि हम वीरपुरा के वीर हैं। आज तक इस गाँव में किसी चोर या डाकू की अपनी औकात दिखाने की हिम्मत नहीं हुई, फिर आज क्यों? क्या हुआ, जो इन डाकुओं के पास हथियार हैं और ये संख्या में हजारों हैं! हम भी तो हजारों में हैं! उठो! जा भीङो इन मानवता के दुश्मनों से और मरते दम तक लङकर अपने वीरपुरा का नाम सार्थक…… आऽऽऽ… आऽऽऽ… आऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ.!”

धङाम!!!
एक डाकू ने हरि काका पर तलवार का शक्तिशाली प्रहार किया और वे चीखकर मंच पर लुढ़क गये।
“हरमजादे! कुत्ते! कमीने! तेरी इतनी औकात कि तू संग्रामसिंह के खिलाफ बोले!”- डाकू हलक फाङकर चिल्लाया।
संग्रामसिंह शेर की तरह दहाङा- “इतने टुकङे कर दो कमीने के कि धूल में मिलायें तो छलनी लेकर छानने पर भी न मिलें!”

इतना कहना था कि भीङ में से एक बङा-सा पत्थर आकर उसकी कनपटी पर लगा…
तङाक!
इसी के साथ वह चक्कर खाकर गिर पङा और बुका फाङकर चिल्लाया- “हरामजादों! देखते क्या हो…काट डालो स्सालों को….बहा दो खून की गंगा…!”

एक क्षण में वहाँ घमासान मच गया। ग्रामीणों के हाथ में लाठी, पत्थर, धूल, कंकड़… जो भी आया, हथियार बन गया। महिलाऐं भी पीछे नहीं रही। जानकी ने तो#पण्डाल का बाँस निकालकर एक डाकू के सिर पर इतनी जोर से मारा कि उसका सिर फूट गया और वह कराहकर वहीं ढ़ेर हो गया। उसने तुरन्त उसकी तलवार लपक ली और हाथ की हाथ दो-तीन डाकुओं के गले काट डाले। उसे देखकर अन्य महिलाओं में प्रेरणा जागी और वे भी झाँसी की रानी बनकर रणक्षेत्र में कूद पङी। बच्चे बुरी तरह चिल्ला रहे थे, पर वे उनको कहाँ संभालती? वे तो इस समय महाभारत जीतने पर उतारू थी।

इधर पुरुष वर्ग ने तो कमाल ही कर दिया। डाकुओं को उन्हीं की तलवारों से काट-काटकर जमीन पर सुला रहे थे।
हरि काका का अन्तिम कथन और उनका बलिदान – दोनों ही उनको प्रेरणा दे रहे थे। भीषण मारकाट मची थी। वीर योद्धा बराबर की टक्कर ले रहे थे। जैसे ही कोई साथी मौत की नींद सोता, उनका उत्साह दुगुना हो जाता।

कोई आधे घण्टे तक भीषण संघर्ष चला। सैंकड़ो ग्रामीण तथा आधे से ज्यादा डाकू यमराज की भेंट हो गये। आखिर डाकुओं के हौंसल्ले पस्त हो गये। उनके पैर उखङ गये। सम्बल देने वाला तो कोई था नहीं, क्योंकि उनका सरदार संग्रामसिंह तो सिर में चोट लगने से बेहोश हो गया था, फलस्वरुप वे भाग खङे हुए। ग्रामीण उनके पीछे भागे। मानो मैराथन की प्रतियोगिता में हिस्सा ले रहे हों।

इतनी देर से सकत्ते में आए पण्डित जी और उनके चेलों ने जब यह महसूस किया कि अब खतरा टल चुका है, तो वे तख्तों के नीचे से निकले और उल्टे पाँव गाँव की तरफ भागे।

इधर महिलाओं ने मिलकर संग्रामसिंह के हाथ-पैर बाँध दिये और उसे लात-घूँसे मारने लगी। परिणाम यह हुआ कि चंद ही सैकण्ड में उसके होश ठिकाने आ गये। तभी मैदान छोङकर भागे डाकुओं को घेरकर ग्रामीण उन्हें पण्डाल में लाए और वहाँ उनकी जमकर मरम्मत करने लगे। ग्रामीण अपनी इस सफलता पर फूले नहीं समा रहे थे। वे डाकुओं को मारते जाते थे और साथ-साथ जश्न मनाते जाते थे।

*****
पुलिस की कोई बीसों गाङियाँ आकर गाँव में रुकी। पुलिसकर्मी अपनी-अपनी बन्दूकें सम्भाले फटाफट गाङियों से उतरे और घटनास्थल को जा घेरा। यह देख एक क्षण को ग्रामीण सकत्ते में आ गये, लेकिन तभी एक पुलिसकर्मी ने आगे बढ़कर कहा- “जिस संग्रामसिंह ने आज तक पुलिस की नाक में दम कर रखा था, रातों की नींद हराम कर रखी थी, उसी संग्रामसिंह को मैं आज इतना लाचार देख रहा हूँ। यह हम सबके लिए बङी खुशी बात है, कि आज आपने वीरपुरा का नाम सार्थक कर दिखाया है। मारो इन हरामजादों को! इतना मारो कि हड्डी-पसल्ली एक हो जाऐ..!”

तभी!
“रुक जाओ…!”- यह आदेश था थानेदार रमाकांत तिवारी का।
ग्रामीणों के हाथ जस के तस रुक गये।
“मारने से ही अगर कोई सुधरता, तो गधे आज दुनिया के सबसे बुद्धिमान प्राणी होते!”- यह कहना था रमाकांत तिवारी का।

तिवारी जी ने आगे बढ़कर संग्रामसिंह के हाथ-पैर खुलवाये और ग्रामीणों से मुखातिब होकर बोले- “माना कि संग्रामसिंह एक खूंखार डाकू है और इसने असंख्य लोगों को मौत के घाट उतारा है।
न जाने इसने कितनी ही स्त्रियों का सौभाग्य छीना है, कितनी ही स्त्रियों से उनकी सन्तानों को छीना है, कितने ही भाईयों से उनकी बहनों को छीना है, कितने ही बच्चों से उनके माँ-बाप को छीना है। दया-रहम को त्यागकर यह इंसानियत का दुश्मन बन बैठा है। वैसे इसके अपराधों को देखा जाए, तो इसे माफ नहीं किया जा सकता, किन्तु फिर भी मैं एक मौका देता हूँ इसे इंसान बनने का……।”
तिवारी जी का उक्त वक्तव्य सुनकर ग्रामीणों में खुसर-फुसर होने लगी – सब इनकी मिलीभगत है! नहीं तो क्या आज तक यह पकङा नहीं जाता? ये क्यों पकङेंगे इसे, मोटी रकम जो मिलती है! आदि-आदि।

इधर वे पुलिस वाले, जो इतने दिन से संग्रामसिंह से पीछे पङे हुए थे, जिनका दिन का चैन और रातों की नींद हराम हो गयी थी, मन ही मन थानेदार को गालियाँ दे रहे थे।

तिवारी जी बहुत ही अनुभवी और बुद्धिमान इंसान थे। प्रत्येक कार्य को बहुत सोच-समझकर करते थे। इस समय अपने वक्तव्य पर लोगों की प्रतिक्रिया को देखकर वे एक क्षण में उनके मन की बात समझ गये। बोले- “आप यह मत सोचिए कि संग्रामसिंह डाकू ही जन्मा था। कोई भी मनुष्य जन्मजात डाकू या चोर नहीं होता, उसकी मजबूरियाँ और परिस्थतियाँ उसे ऐसा बना देती हैं। कहते हैं न कि मजबूरी आदमी से वह काम करवा लेती है, जिसे वह सपने में भी नहीं करना चाहे। और जहाँ तक मेरा मानना है, संग्रामसिंह भी परिस्थति और लाचारी के ऐसे ही कुचक्र में फँसकर डाकू बना है। बोल संग्राम! ऐसी कौनसी मजबूरी थी, जिसने तुम्हें डाकू बनने पर बाध्य किया?”

“म..म…मैं….मैं…..मैं……ठ..ठ….ठ…..ठा….!”- संग्रामसिंह मारे भय के बोल नहीं पा रहा था। उसका सारा बदन थर्र-थर्र काँप रहा था।”
“डरो मत! जो भी कहना है, बेखौफ होकर कहो।”
“मैं..मैं…ठा…ठा…ठाकुर….च…च…चन्द…चन्देलसिंह…का…इ… इकलौता… पुत्र…था….।”- संग्रामसिंह अब भी डर के मारे बोल नहीं पा रहा था। वह बार-बार ग्रामीणों की तरफ देख रहा था।
तिवारी जी हौंसला बढ़ाते हुए बोले- “डरो मत, अपनी बात निर्भय होकर कहो! अब ये लोग तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे।”

यह सुनकर संग्रामसिंह की लङखङाती जबान कुछ सम्भली, वह कहने लगा- “मेरे दादाजी बहुत सम्पति छोङकर गये थे। पिताजी विलासी प्रकृति के आदमी थे। नाच-गान और सूरापान उनके पसंदीदा शौक थे। वे शराब पीकर रोज लङाई-झगङा करते और माँ के साथ मारपीट करते। हमेशा रंगशालाओं में जाते, नाच-गान देखते और नर्तकियों पर खूब पैसे लुटाते। परिणामस्वरूप एक दिन उनकी सारी जमा पूँजी और जमीन-जायदाद इसी शौक की भेंट चढ़ गयी और अन्ततः वे कंगाल हो गये। माँ इस सदमे को बर्दाश्त न कर सकी और एक दिन कुँऐ में कूदकर प्राणान्त कर लिया। पिताजी कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहे। वे उसी रात घर से भाग निकले। उस समय मेरी उम्र कोई बारह-तेरह वर्ष रही होगी। जाने वाले चले गये… और…मैं..मैं उनके नाम को रोने के लिए…इस दुनिया में बचा रह गया…।”- कहते-कहते वह सिसकने लगा।
तिवारी जी ने उसे ढाढ़स बंधाया।

वह फिर कहने लगा- “और फिर एक दिन मैं भी रोता-बिलखता घर से निकल गया। जगह-जगह घूमता रहा। कहीं मजदूर की तो कहीं कूली बनकर सामान ढोया। शाम को पेट भर भोजन मिल जाता तो मैं अपने भाग्य को सराहता, परन्तु कभी-कभी दिनभर की हाङतोङ मेहनत के बावजूद भूखा सोना पङता। एक दिन चार दिन का भूखा मैं आत्महत्या करने पर उतारू हो गया। पेङ से फन्दा लटकाकर मैं फाँसी लगाने ही वाला था कि एक आदमी न जाने अचानक कहाँ से आ टपका। उसने मुझे रोका और समझा-बुझाकर अपने साथ ले गया। वह आदमी मुझे बहुत भला लगा। लेकिन बाद में मालूम हुआ कि वह एक चोर था। उसने मुझे चोरी करके ऐशो-आराम से जीने के सुन्दर-सुन्दर ख्वाब दिखाये और मैँ वहीं चोरी करने लगा। तीन साल तक मैंने उस चोर के साथ रहकर चोरी के गुर सीखे और एक शातिर चोर बन गया। एक दिन हमारा झगङा हो गया, तो उस चोर को मारकर तथा उसका सारा माल-असबाब लेकर मैं वहाँ से भाग खङा हुआ और डाकू मंगलसिंह के गिरोह में शामिल हो गया। मंगलसिंह के पास उस समय लगभग पचास-साठ आदमी थे। मैंने यहीं अपनी किस्मत चमकाई। अपने चातुर्य के बल पर बहुत कम समय में मैं मंगलसिंह का दाँया हाथ बन गया।

मेरे आने के बाद मंगलसिंह के गिरोह में सदस्यों की संख्या दिन दुनी और रात चौगुनी बढ़ी। दो ही वर्षों में यह संख्या आठ सौ तक पहुंच गयी। यह सब मेरे ही भागीरथ परिश्रम का फल था। दूर-दूर तक मंगलसिंह की धाक जम गई। जंगल में दिन-दहाङे जाने से भी लोग डरने लगे। उनकी यह धारणा हो गई कि लूटेरे तो क्या, लूटेरों का बाप भी इस जंगल से बिना लुटे नहीं निकल सकता।

समय बीतता चला गया। मंगलसिंह बुढ़ा हो चुका था अतः उसने अपना कार्यभार मुझे सौंप दिया। सरदार के पद पर आसीन होते ही मैंने अपना पराक्रम दिखाना आरम्भ किया। बङे-बङे वे गाँव, जिन्हें मंगलसिंह अपनी जिन्दगी में नहीं लूट सका था, मैंने खेल-खेल में लूट डाले। इससे पूरे गिरोह में मेरी लोकप्रियता बढ़ गई।”- कहकर संग्रामसिंह ने एक गहरी सांस ली।
सब लोग बङे ध्यान से उसकी बातें सुन रहे थे। वह फिर कहने लगा- “मैं कबूल करता हूँ कि मैंने बहुत-से निर्दोष लोगों का खून बहाया है…..बहुत पाप किया है…..मुझ जैसा पामर और नीच इस धरती पर न होगा…..नरक में मुझे ठौर नहीं मिलेगी….!”- कहकर वह रोता हुआ तिवारी जी के चरणों में गिर पङा और क्षमा-याचना करने लगा।
तिवारी जी ने उसे बाहों में भरकर उठाया और वहाँ ले गये, जहाँ कुछ ही देर पहले हुए भीषण संग्राम में मृत-अर्द्धमृत लोगों से धरती अटी पङी थी। कुछ लोग अभी भी कराह रहे थे। किसी का हाथ कट गया था तो किसी का पैर। कोई मर चुका था कोई जीवन और मृत्यु के बीच जूझ रहा था। कोई तङफङा रहा था तो कोई शान्त हो चुका था। उनके घावों से खून बह रहा था, जिससे धरती रक्तिम हो गई थी। बङा ही वीभत्स दृश्य था। देखकर जुगुप्सा होती थी।
यह भयानक दृश्य देखकर संग्रामसिंह की आँखों से आँसू बहने लगे।
इन आँसुओं ने उसके दिल का सारा मैल धो डाला। सूख चुका इंसानियत का पौधा प्रेमजल पाकर फिर हरा-भरा हो गया।

वह हाथ जोङकर कहने लगा- “आज मैं आप लोगों के सामने यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज के बाद कभी ऐसा अनुचित कर्म नहीं करुँगा। इस जंग में जिन माताओं ने अपने लाल खोये हैं, जिन बहनों ने अपने भाई खोये हैं और जिन बच्चों ने अपने माँ-बाप खोये हैं, उन सभी से हाथ जोङकर माफी चाहता हूँ। आज से वे हमें ही सब-कुछ मानें….हम आपकी हर जरुरत पूरी करेंगे। अब हम जीवन भर आपकी सेवा कर अपने पापों का प्रायश्चित करेंगे।”

यह सुनते ही सभी डाकुओं ने हथियार फैंक दिये और हाथ जोङकर क्षमा-याचना करने लगे- “आज तक हमारी कोई जिन्दगी नहीं थी, लेकिन अब हम भी आप लोगों के बीच रहकर आत्मसम्मान का जीवन जीयेंगे। आज तक हम केवल अपने लिए जीते थे, किन्तु अब आप लोगों की तरह समाज के बीच रहकर दूसरों के लिए जीयेंगे….!”
सभी लोग स्तब्ध थे कि ये हृदयहीन राक्षस एक क्षण में देवता कैसे बन गये?

तिवारी जी के चेहरे पर संतोष का भाव था। वे ग्रामीणों से मुखातिब होकर बोले-“अब इन लोगों का पत्थर जैसा कठोर हृदय पिघल चुका है…दया-रहम जाग गई है…इनका हृदय परिवर्तित हो गया है। …अब ये डाकू नहीं, आपकी और मेरी तरह साधारण इंसान हैं….अपने ही भाई।”- कहकर उन्होंने संग्रामसिंह को गले लगा लिया।

इस घटना के बाद संग्रामसिंह का हृदय पूरी तरह से परिवर्तित हो गया। उसने लूट का सारा माल गरीबों में बाँट दिया और गिरोह साहित खुद भी किसी बेसहारा का सहारा बनकर सम्मान का जीवन जीने लगा।

लेखक : मेघराज रोहलण ‘मुंशी’