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हृदय परिवर्तन (कहानी)

गाँव में सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं किसी पक्षी के चहकने तक की आवाज न थी। लोग डर के मारे अपने-अपने घरों में दुबके बैठे थे। सभी निराश-हताश, डरे-सहमे-से मानो यमराज का इंतजार कर रहे थे। कहीं कोई नादान बच्चा मुँह खोलता तो माता-पिता द्वारा आवाज निकलने से पहले ही उसका मुँह ढांप दिया जाता था। धमनियों में रुधिर की जगह भय दौङ रहा था। रक्त जैसे जम गया था। मुँह मानो प्रचंड अग्नि ने झुलस दिया हो। शरीर पाषाण बन गया हो और साँसे जैसे रुक गयी हो। वृक्षों की पत्तियाँ तक मारे भय के कांप रही थी।

अचानक गाँव की उत्तर दिशा में भयानक शोर सुनायी दिया। सहस्त्रों मनुष्यों और घोङों के दौङने की आवाज धीरे-धीरे पास आने लगी। आकाश में धूल की आँधी छा गयी। शोर उत्तरोतर बढ़ता गया और कुछ ही पल में डाकुओं की एक बङी सेना गाँव की चौपाल में आ डटी।

लोगों को काटो तो खून नहीं। भय से थर्र-थर्र काँप उठे। हृदय न चाहते हुए भी उछल-उछल पङता था। परीक्षा की विकट घङी थी। आँखों के सामने मौत नाचती थी। सभी आँखे बंद किए अपनी-अपनी मृत्यु का इंतजार कर रहे थे। कोई मन ही मन अपने इष्टदेव का स्मरण कर रहा था तो कोई सपरिवार स्वंय को ईश्वर के चरणों में डाले बैठा था। भय का बङा ही दारुण नज़ारा था यह।

डाकू संग्राम सिंह ने चौपाल के चबूतरे पर खङे होकर अपने सैनिकों को आदेश दिया- “मेरे विश्वासपात्र सैनिकों! लूट डालो इस गाँव को! और जो कोई जुबान खोले, उसे रस्सी से बाँधकर मेरे पास घसीट लाओ! जाओ…!”
आज्ञा का तुरन्त पालन हुआ। सब के सब घरों में घुस गये। सैनिक सामान ला-लाकर चबूतरे पर जमाने लगे। देखते ही देखते चबूतरे पर ढ़ेर लग गया। संग्रामसिंह बङे गौर से टटोल-टटोलकर सामान को देख रहा था।

तभी.!!!
एक सैनिक एक वृद्ध को घोङे से बाँधे घसीटकर लाया और बोला, “सरदार! इस आदमी ने जोरावरसिंह को ईंट मार दी।”
यह सुनते ही संग्रामसिंह की आँखों में खून उतर आया। वह एक चमङे की बेंत लेकर वृद्ध पर पिल्ल पङा। वृद्ध, जो कि लगभग साठ-पैंसठ की उम्र का था, हर बेंत पर जोर से चीखता था। वह जितने जोर से चीखता था, संग्रामसिंह उतने ही जोर से ठहाका मारकर हँसता था और पास खङे सैनिक तालियाँ बजाते थे। इस पर संग्रामसिंह और भी जोर से बेंत मारता। कुछ ही पल में वृद्ध की खाल जगह-जगह से फट गई और वह खून से लहूलुहान हो गया। उसकी चीखें भी बंद हो गई, लेकिन संग्रामसिंह अब भी उसे बराबर पीटे जा रहा था। पास खङे सैनिक खूब तालियाँ बजा-बजाकर अपने सरदार का मनोबल बढ़ा रहे थे। यहाँ तक कि वृद्ध मर चुका था।
“इस लाश को घोङे पर लाद लो!”- संग्रामसिंह ने एक सैनिक को आदेश दिया।
सैनिक नया था; असमंजस के भाव से बोला- “इस मुर्दे का हम क्या करेंगे सरदार?”
संग्रामसिंह गरजकर बोला- “मूर्ख आदमी! इतना भी नहीं जानता कि हमारे कुत्ते मनुष्य का माँस खाते हैं?”
सैनिक ने सुर झुकाकर आज्ञा का पालन किया।

सारा माल-असबाब इकट्ठा हुआ। उसे बोरों में भर-भरकर घोङों पर लादा गया। सभी सैनिकों ने अपने-अपने घोङे सम्भाले। एक जोर की शंखध्वनि हुई और अपनी विजय का हर्षोल्लास मनाती हुई यह डाकुसेना गाँव से प्रस्थान कर गई।

*****
जेष्ठ मास पूरा सूखा बीत गया। खङी फसल सूखने लगी। किसान वर्षा का इंतजार करते-करते थक गये, पर वर्षा की एक बूंद न बरसी। इन्द्र भगवान लम्बी ताने सोये रहे।

किसानों ने अभी आशा का साथ नहीं छोङा था। वे अब भी आकाश में बादल छाने का इंतजार कर रहे थे, किन्तु जब आधा आषाढ़ बीत गया और वर्षा की एक बूंद न पङी, तो उनकी सारी आशा निराशा में बदल गई। उन्होनें जो सुखमय ख्वाब सँजो रखे थे, उन पर पानी फिरता नजर आया।

वेदीराम इस फसल पर अपनी बिटिया के हाथ पीले करने की सोच रहा था, परन्तु अब उसने उम्मीद छोङ दी थी। माधोराव मकान बनवाने के सपने देख रहा था, परन्तु अब उसे पेट भरना भी मुश्किल जान पङता था। इधर सुखराम ने महाजन का सारा कर्जा चुकाने की प्रतिज्ञा कर रखी थी, परन्तु अब उसे लगने लगा कि इस बार महाजन उसे जीता न छोङेगा। किसानों के मन में जाने कैसे-कैसे अरमान थे, सब मिट्टी में मिल गये। वे चिन्तित हो उठे।

संध्या का समय था। आठ-दस किसान गाँव की चौपाल में बैठे थे। रामू दादा, जो गाँव के सबसे अनुभवी बुजुर्ग थे, निराश होकर कहने लगे- “आस-पास के गाँवों में हमारा ही एकमात्र ऐसा गाँव था, जहाँ आज तक कभी अकाल नहीं पङा। भगवान की कृपा से सदैव अन्न-धन के भण्डार भरे रहे हैं। खेतों ने हमेशा सोना उगला है, पर लगता है इस बार हम भगवान इन्द्रदेव के कोपभाजन बन गये हैं।”
“सबसे खुशहाल और सम्पन्न समझा जाने वाला यह वीरपुरा गाँव इस बार कंगाल हो जायेगा।”- कहकर मदन रुँआसा हो चला।
माधव- “सच कहा भैया! आज तक बैरी अकाल से वास्ता नहीं पङा था। यहीं पैदा हुआ, यहीं पला-बढ़ा, पर कभी अभाव का मुँह नहीं देखा। लेकिन इस बार तो…भगवान ही मालिक है।”
खेमकरण – “आज तक इस गाँव में कभी महामारी नहीं फैली, कभी डाका नहीं पङा, कभी चोरी तक नहीं हुई! कितना खुशहाल था अपना वीरपुरा!”
“क्यों न हम सब मिलकर भगवान इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिए कोई अनुष्ठान करें।”- पटेल काका ने सुझाव दिया।

रामू दादा बोले- “मैं भी पिछले कई दिनों से यही सोच रहा था भैया। अब वर्षा की उम्मीद करना व्यर्थ है। कोरी उम्मीद के सहारे कब तक बैठे रहेंगे? हमें जल्द-से-जल्द कोई उपाय करना चाहिए।”
शुभकरण- “ठीक कहते हो दादा! इन्द्र भगवान को प्रसन्न करने के लिए हमें जल्द-से-जल्द कोई यज्ञ-हवन कराना चाहिए।”
दीनू- “देखो भैया! यह कोई एक आदमी की समस्या तो है नहीं! यह तो पूरे की गाँव की समस्या है, जो मिल-बैठकर ही सुलझायी जा सकती है।”
रामू दादा ने सहमति में सिर हिलाया। तभी गाँव के मुखिया हरि काका भी आ गये। आते ही बोले- “कहो रामू दादा! आज किस बात की मीटिंग हो रही है?”
रामू दादा ने संक्षेप में अपनी बात दोहरायी और पूछा- “तुम्हारी क्या राय है?”
हरि काका खुश होकर बोले- “शुभ काम में देरी कैसी? कहो तो कल ही सारा इंतजाम करवा दूँ!”
यह सुनकर रामू दादा फूले न समाये।

इसके बाद आगे की योजना बनने लगी। तय हुआ कि प्रत्येक घर से पाँच सेर अनाज और दस-दस रूपये उगाहे जाऐं।

दिन उगने की देर थी कि उगाही शुरु हो गयी। उगाही का काम किसनाराम के जिम्मे था। सुखदेव और मदन उसकी मदद कर रहे थे। ग्रामीण बढ़-चढ़कर उगाही दे रहे थे। प्रायः धर्म-कर्म और दान-दक्षिणा को लेकर ग्रामीणों में जो उत्साह हुआ करता है, उससे कहीं ज्यादा उत्साह इस समय वीरपुरा के लोगों में देखा जा सकता था।

मंगलवार के दिन हवन तय हो गया। प्रातःकाल की शुभवेला में सवा नौ बजे का मुहुर्त्त ठहरा। इस स्वर्गिक अनुष्ठान का सारा भार पङौसी गाँव के जाने-माने पण्डित सूर्यनारायण शास्त्री ने अपने कंधो पर लिया।

पौ फटते ही गाँव में चहल-पहल शुरु हो गई। चौक में एक बङा-सा पण्डाल सज गया। एक तख्त पर राम, हनुमान, सीता, श्रीकृष्ण तथा इन्द्र देवता की आदमकद मूर्तियाँ विराजमान हुई। पण्डाल में पानी छिङका गया। दरियाँ बिछायी गयी। बीचों-बीच रस्से बाँधकर महिलाओं और पुरूषों के बैठने की अलग-अलग व्यवस्था की गई। फूलमालाऐं लगायी गयी। नाना प्रकार की सजावट की गई। सब तैयारियाँ पूर्ण थी। कहीं कोई कमी न थी।

साढ़े आठ बजते-बजते पण्डाल खचाखच भर गया। महिलाऐं, बच्चे, बङे-बूढ़े सब चले आये थे। अब बस इन्तज़ार था तो पण्डितजी के पधारने का। लोग बेसब्री से उनकी राह देख रहे थे।

ठीक नौ बजे पण्डित सूर्यनारायण शास्त्री ने अपने तीन सुयोग्य शिष्यों के साथ पदार्पण किया। लोग उन्हें देखते ही निहाल हो गये। पण्डितजी ने आते ही सबको आशीर्वाद दिया और तत्पश्चात वे मंचासीन हुए। उनके शिष्यों ने फटाफट यज्ञ-वेदिका तैयार की और सामग्री सजायी, तब तक पण्डितजी अपने पोथी-पत्रों को फैला चुके थे। ठीक सवा नौ बजे उन्होंने यज्ञ-वेदिका में अग्नि प्रज्जवलित कर हवन शुरु कर दिया।

*****
बबूल के बियावान जंगल के बीच सैंकड़ों तम्बू लगे हैं। तम्बूओं के चारों ओर घोङे खङे हैं। १५-२० ऊँचे-तगङे शिकारी कुत्ते यहाँ पहरा लगा रहे हैं।

इस जंगल में संग्रामसिंह का एकछत्र साम्राज्य है। उसके पास सैंकड़ों घोङे और विश्वासपात्र सैनिक हैं। संग्रामसिंह परले सिरे का धूर्त, निर्दयी और हृदयहीन डाकू है। दूर-दूर तक उसकी धाक है। बच्चे तो क्या, बङे-बूढ़े भी उसका नाम सुनकर पत्ते की तरह कांप उठते हैं। वह आस-पास के कई गाँवों को सफलापूर्वक लूट चुका है।

संग्रामसिंह पुलिस का सबसे महंगा शिकार है। उस पर पचास हजार का नकद ईनाम भी है, लेकिन किसी की इतनी हिम्मत नहीं कि उसे पकङवा सके। यहाँ तक कि पुलिस खुद उससे डरती है। कई बार पुलिस ने जंगल को घेरकर उसे पकङने की कोशिश भी की, परन्तु निराशा ही हाथ लगी। जो पुलिसकर्मी जंगल में उसे पकङने के लिए गये थे, वे लौटकर नहीं आये।

इस समय संग्रामसिंह और उसके सैनिकों के मध्य किसी बङी लूट की योजना को लेकर गहन विचार-विमर्श चल रहा है।
“…इतना ही नहीं सरदार! यह गाँव बहुत खुशहाल भी है। यहाँ के लोग अपने गाँव के नाम के अनुरुप ही बङे वीर हैं।”- एक अनुभवी सैनिक ने बताया।
“और तो और, इस गाँव के तो किसान भी बहुत धनी हैं।”- दूसरे ने समर्थन किया।
संग्रामसिंह – “मैंने सुना है आज तक इस गाँव में कभी डाका नहीं पङा!”
“हाँ सरदार! और गाँव वालों को इस बात का घमण्ड भी है। वे कहते हैं कि इस गाँव में डाका पङना तो दूर, छोटी-मोटी चोरी तक नहीं हो सकती।”
यह सुनते ही संग्रामसिंह आगबबूला हो उठा। मानो किसी ने उसके पुरुषार्थ को चुनौती दे डाली हो, गरजकर बोला – “फोङे जितना-सा गाँव और यह मजाल! वह भी संग्रामसिंह के होते हुए!..हूँ! तुरन्त घोङे निकालो, अब तो वीरपुरा के वीरों का घमण्ड चूर करके ही पानी पियेंगे…..जाओ..!”

आदेश मिलने की देर थी कि डाकू सेना एक क्षण में तैयार हो गई। संग्रामसिंह ने तलवार निकाली और अपने घोङे पर जा बैठा। तत्पश्चात एक समवेत् जयघोष के साथ डाकू सेना ने वीरपुरा के लिए प्रस्थान किया।

*****
इस समय वीरपुरा गाँव भक्ति के रस में डूबा हुआ था। पण्डित सूर्यनारायण शास्त्री जी के सुरीले कण्ठ से मर्यादापुरुषोत्तम राम की महिमा का बखान हो रहा था। श्रोता तन्मय होकर सुन रहे थे। समूचा वातावरण भक्तिमय हो रहा था कि तभी इलाके के खूंखार डाकू संग्रामहसिंह ने अपने दलबल सहित गाँव में कदम रखा। वीरपुरा के लोगों के लिए संग्रामसिंह कोई नया नाम नहीं था। वे उसके हर कारनामे से परिचित थे। जब लोगों ने उन्हें देखा तो होश उङ गये। बच्चे बुरी तरह रोने-चिल्लाने लगे। महिलाऐं उठ-उठकर इधर-उधर भागने लगी। यह देख संग्रामसिंह ने गरजकर कहा- “देखते क्या हो हरामजादों..! रोको इनको….! एक भी न जाने पाये यहाँ से…..!”

डाकुओं ने अपनी-अपनी तलवारें खींच ली और महिलाओं का रास्ता रोककर खङे हो गये। चारों तरफ हाय-तौबा मच गई। जहाँ पल-भर पहले ईद थी, वहाँ अब मुहर्रम हो गया।

तभी एक चमत्कार हो गया। गाँव के मुखिया हरि काका ने मंच पर चढ़कर माईक संभाल लिया और बोले- “भाईयों! यह मत भूलो कि हम वीरपुरा के वीर हैं। आज तक इस गाँव में किसी चोर या डाकू की अपनी औकात दिखाने की हिम्मत नहीं हुई, फिर आज क्यों? क्या हुआ, जो इन डाकुओं के पास हथियार हैं और ये संख्या में हजारों हैं! हम भी तो हजारों में हैं! उठो! जा भीङो इन मानवता के दुश्मनों से और मरते दम तक लङकर अपने वीरपुरा का नाम सार्थक…… आऽऽऽ… आऽऽऽ… आऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ.!”

धङाम!!!
एक डाकू ने हरि काका पर तलवार का शक्तिशाली प्रहार किया और वे चीखकर मंच पर लुढ़क गये।
“हरमजादे! कुत्ते! कमीने! तेरी इतनी औकात कि तू संग्रामसिंह के खिलाफ बोले!”- डाकू हलक फाङकर चिल्लाया।
संग्रामसिंह शेर की तरह दहाङा- “इतने टुकङे कर दो कमीने के कि धूल में मिलायें तो छलनी लेकर छानने पर भी न मिलें!”

इतना कहना था कि भीङ में से एक बङा-सा पत्थर आकर उसकी कनपटी पर लगा…
तङाक!
इसी के साथ वह चक्कर खाकर गिर पङा और बुका फाङकर चिल्लाया- “हरामजादों! देखते क्या हो…काट डालो स्सालों को….बहा दो खून की गंगा…!”

एक क्षण में वहाँ घमासान मच गया। ग्रामीणों के हाथ में लाठी, पत्थर, धूल, कंकड़… जो भी आया, हथियार बन गया। महिलाऐं भी पीछे नहीं रही। जानकी ने तो#पण्डाल का बाँस निकालकर एक डाकू के सिर पर इतनी जोर से मारा कि उसका सिर फूट गया और वह कराहकर वहीं ढ़ेर हो गया। उसने तुरन्त उसकी तलवार लपक ली और हाथ की हाथ दो-तीन डाकुओं के गले काट डाले। उसे देखकर अन्य महिलाओं में प्रेरणा जागी और वे भी झाँसी की रानी बनकर रणक्षेत्र में कूद पङी। बच्चे बुरी तरह चिल्ला रहे थे, पर वे उनको कहाँ संभालती? वे तो इस समय महाभारत जीतने पर उतारू थी।

इधर पुरुष वर्ग ने तो कमाल ही कर दिया। डाकुओं को उन्हीं की तलवारों से काट-काटकर जमीन पर सुला रहे थे।
हरि काका का अन्तिम कथन और उनका बलिदान – दोनों ही उनको प्रेरणा दे रहे थे। भीषण मारकाट मची थी। वीर योद्धा बराबर की टक्कर ले रहे थे। जैसे ही कोई साथी मौत की नींद सोता, उनका उत्साह दुगुना हो जाता।

कोई आधे घण्टे तक भीषण संघर्ष चला। सैंकड़ो ग्रामीण तथा आधे से ज्यादा डाकू यमराज की भेंट हो गये। आखिर डाकुओं के हौंसल्ले पस्त हो गये। उनके पैर उखङ गये। सम्बल देने वाला तो कोई था नहीं, क्योंकि उनका सरदार संग्रामसिंह तो सिर में चोट लगने से बेहोश हो गया था, फलस्वरुप वे भाग खङे हुए। ग्रामीण उनके पीछे भागे। मानो मैराथन की प्रतियोगिता में हिस्सा ले रहे हों।

इतनी देर से सकत्ते में आए पण्डित जी और उनके चेलों ने जब यह महसूस किया कि अब खतरा टल चुका है, तो वे तख्तों के नीचे से निकले और उल्टे पाँव गाँव की तरफ भागे।

इधर महिलाओं ने मिलकर संग्रामसिंह के हाथ-पैर बाँध दिये और उसे लात-घूँसे मारने लगी। परिणाम यह हुआ कि चंद ही सैकण्ड में उसके होश ठिकाने आ गये। तभी मैदान छोङकर भागे डाकुओं को घेरकर ग्रामीण उन्हें पण्डाल में लाए और वहाँ उनकी जमकर मरम्मत करने लगे। ग्रामीण अपनी इस सफलता पर फूले नहीं समा रहे थे। वे डाकुओं को मारते जाते थे और साथ-साथ जश्न मनाते जाते थे।

*****
पुलिस की कोई बीसों गाङियाँ आकर गाँव में रुकी। पुलिसकर्मी अपनी-अपनी बन्दूकें सम्भाले फटाफट गाङियों से उतरे और घटनास्थल को जा घेरा। यह देख एक क्षण को ग्रामीण सकत्ते में आ गये, लेकिन तभी एक पुलिसकर्मी ने आगे बढ़कर कहा- “जिस संग्रामसिंह ने आज तक पुलिस की नाक में दम कर रखा था, रातों की नींद हराम कर रखी थी, उसी संग्रामसिंह को मैं आज इतना लाचार देख रहा हूँ। यह हम सबके लिए बङी खुशी बात है, कि आज आपने वीरपुरा का नाम सार्थक कर दिखाया है। मारो इन हरामजादों को! इतना मारो कि हड्डी-पसल्ली एक हो जाऐ..!”

तभी!
“रुक जाओ…!”- यह आदेश था थानेदार रमाकांत तिवारी का।
ग्रामीणों के हाथ जस के तस रुक गये।
“मारने से ही अगर कोई सुधरता, तो गधे आज दुनिया के सबसे बुद्धिमान प्राणी होते!”- यह कहना था रमाकांत तिवारी का।

तिवारी जी ने आगे बढ़कर संग्रामसिंह के हाथ-पैर खुलवाये और ग्रामीणों से मुखातिब होकर बोले- “माना कि संग्रामसिंह एक खूंखार डाकू है और इसने असंख्य लोगों को मौत के घाट उतारा है।
न जाने इसने कितनी ही स्त्रियों का सौभाग्य छीना है, कितनी ही स्त्रियों से उनकी सन्तानों को छीना है, कितने ही भाईयों से उनकी बहनों को छीना है, कितने ही बच्चों से उनके माँ-बाप को छीना है। दया-रहम को त्यागकर यह इंसानियत का दुश्मन बन बैठा है। वैसे इसके अपराधों को देखा जाए, तो इसे माफ नहीं किया जा सकता, किन्तु फिर भी मैं एक मौका देता हूँ इसे इंसान बनने का……।”
तिवारी जी का उक्त वक्तव्य सुनकर ग्रामीणों में खुसर-फुसर होने लगी – सब इनकी मिलीभगत है! नहीं तो क्या आज तक यह पकङा नहीं जाता? ये क्यों पकङेंगे इसे, मोटी रकम जो मिलती है! आदि-आदि।

इधर वे पुलिस वाले, जो इतने दिन से संग्रामसिंह से पीछे पङे हुए थे, जिनका दिन का चैन और रातों की नींद हराम हो गयी थी, मन ही मन थानेदार को गालियाँ दे रहे थे।

तिवारी जी बहुत ही अनुभवी और बुद्धिमान इंसान थे। प्रत्येक कार्य को बहुत सोच-समझकर करते थे। इस समय अपने वक्तव्य पर लोगों की प्रतिक्रिया को देखकर वे एक क्षण में उनके मन की बात समझ गये। बोले- “आप यह मत सोचिए कि संग्रामसिंह डाकू ही जन्मा था। कोई भी मनुष्य जन्मजात डाकू या चोर नहीं होता, उसकी मजबूरियाँ और परिस्थतियाँ उसे ऐसा बना देती हैं। कहते हैं न कि मजबूरी आदमी से वह काम करवा लेती है, जिसे वह सपने में भी नहीं करना चाहे। और जहाँ तक मेरा मानना है, संग्रामसिंह भी परिस्थति और लाचारी के ऐसे ही कुचक्र में फँसकर डाकू बना है। बोल संग्राम! ऐसी कौनसी मजबूरी थी, जिसने तुम्हें डाकू बनने पर बाध्य किया?”

“म..म…मैं….मैं…..मैं……ठ..ठ….ठ…..ठा….!”- संग्रामसिंह मारे भय के बोल नहीं पा रहा था। उसका सारा बदन थर्र-थर्र काँप रहा था।”
“डरो मत! जो भी कहना है, बेखौफ होकर कहो।”
“मैं..मैं…ठा…ठा…ठाकुर….च…च…चन्द…चन्देलसिंह…का…इ… इकलौता… पुत्र…था….।”- संग्रामसिंह अब भी डर के मारे बोल नहीं पा रहा था। वह बार-बार ग्रामीणों की तरफ देख रहा था।
तिवारी जी हौंसला बढ़ाते हुए बोले- “डरो मत, अपनी बात निर्भय होकर कहो! अब ये लोग तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे।”

यह सुनकर संग्रामसिंह की लङखङाती जबान कुछ सम्भली, वह कहने लगा- “मेरे दादाजी बहुत सम्पति छोङकर गये थे। पिताजी विलासी प्रकृति के आदमी थे। नाच-गान और सूरापान उनके पसंदीदा शौक थे। वे शराब पीकर रोज लङाई-झगङा करते और माँ के साथ मारपीट करते। हमेशा रंगशालाओं में जाते, नाच-गान देखते और नर्तकियों पर खूब पैसे लुटाते। परिणामस्वरूप एक दिन उनकी सारी जमा पूँजी और जमीन-जायदाद इसी शौक की भेंट चढ़ गयी और अन्ततः वे कंगाल हो गये। माँ इस सदमे को बर्दाश्त न कर सकी और एक दिन कुँऐ में कूदकर प्राणान्त कर लिया। पिताजी कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहे। वे उसी रात घर से भाग निकले। उस समय मेरी उम्र कोई बारह-तेरह वर्ष रही होगी। जाने वाले चले गये… और…मैं..मैं उनके नाम को रोने के लिए…इस दुनिया में बचा रह गया…।”- कहते-कहते वह सिसकने लगा।
तिवारी जी ने उसे ढाढ़स बंधाया।

वह फिर कहने लगा- “और फिर एक दिन मैं भी रोता-बिलखता घर से निकल गया। जगह-जगह घूमता रहा। कहीं मजदूर की तो कहीं कूली बनकर सामान ढोया। शाम को पेट भर भोजन मिल जाता तो मैं अपने भाग्य को सराहता, परन्तु कभी-कभी दिनभर की हाङतोङ मेहनत के बावजूद भूखा सोना पङता। एक दिन चार दिन का भूखा मैं आत्महत्या करने पर उतारू हो गया। पेङ से फन्दा लटकाकर मैं फाँसी लगाने ही वाला था कि एक आदमी न जाने अचानक कहाँ से आ टपका। उसने मुझे रोका और समझा-बुझाकर अपने साथ ले गया। वह आदमी मुझे बहुत भला लगा। लेकिन बाद में मालूम हुआ कि वह एक चोर था। उसने मुझे चोरी करके ऐशो-आराम से जीने के सुन्दर-सुन्दर ख्वाब दिखाये और मैँ वहीं चोरी करने लगा। तीन साल तक मैंने उस चोर के साथ रहकर चोरी के गुर सीखे और एक शातिर चोर बन गया। एक दिन हमारा झगङा हो गया, तो उस चोर को मारकर तथा उसका सारा माल-असबाब लेकर मैं वहाँ से भाग खङा हुआ और डाकू मंगलसिंह के गिरोह में शामिल हो गया। मंगलसिंह के पास उस समय लगभग पचास-साठ आदमी थे। मैंने यहीं अपनी किस्मत चमकाई। अपने चातुर्य के बल पर बहुत कम समय में मैं मंगलसिंह का दाँया हाथ बन गया।

मेरे आने के बाद मंगलसिंह के गिरोह में सदस्यों की संख्या दिन दुनी और रात चौगुनी बढ़ी। दो ही वर्षों में यह संख्या आठ सौ तक पहुंच गयी। यह सब मेरे ही भागीरथ परिश्रम का फल था। दूर-दूर तक मंगलसिंह की धाक जम गई। जंगल में दिन-दहाङे जाने से भी लोग डरने लगे। उनकी यह धारणा हो गई कि लूटेरे तो क्या, लूटेरों का बाप भी इस जंगल से बिना लुटे नहीं निकल सकता।

समय बीतता चला गया। मंगलसिंह बुढ़ा हो चुका था अतः उसने अपना कार्यभार मुझे सौंप दिया। सरदार के पद पर आसीन होते ही मैंने अपना पराक्रम दिखाना आरम्भ किया। बङे-बङे वे गाँव, जिन्हें मंगलसिंह अपनी जिन्दगी में नहीं लूट सका था, मैंने खेल-खेल में लूट डाले। इससे पूरे गिरोह में मेरी लोकप्रियता बढ़ गई।”- कहकर संग्रामसिंह ने एक गहरी सांस ली।
सब लोग बङे ध्यान से उसकी बातें सुन रहे थे। वह फिर कहने लगा- “मैं कबूल करता हूँ कि मैंने बहुत-से निर्दोष लोगों का खून बहाया है…..बहुत पाप किया है…..मुझ जैसा पामर और नीच इस धरती पर न होगा…..नरक में मुझे ठौर नहीं मिलेगी….!”- कहकर वह रोता हुआ तिवारी जी के चरणों में गिर पङा और क्षमा-याचना करने लगा।
तिवारी जी ने उसे बाहों में भरकर उठाया और वहाँ ले गये, जहाँ कुछ ही देर पहले हुए भीषण संग्राम में मृत-अर्द्धमृत लोगों से धरती अटी पङी थी। कुछ लोग अभी भी कराह रहे थे। किसी का हाथ कट गया था तो किसी का पैर। कोई मर चुका था कोई जीवन और मृत्यु के बीच जूझ रहा था। कोई तङफङा रहा था तो कोई शान्त हो चुका था। उनके घावों से खून बह रहा था, जिससे धरती रक्तिम हो गई थी। बङा ही वीभत्स दृश्य था। देखकर जुगुप्सा होती थी।
यह भयानक दृश्य देखकर संग्रामसिंह की आँखों से आँसू बहने लगे।
इन आँसुओं ने उसके दिल का सारा मैल धो डाला। सूख चुका इंसानियत का पौधा प्रेमजल पाकर फिर हरा-भरा हो गया।

वह हाथ जोङकर कहने लगा- “आज मैं आप लोगों के सामने यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज के बाद कभी ऐसा अनुचित कर्म नहीं करुँगा। इस जंग में जिन माताओं ने अपने लाल खोये हैं, जिन बहनों ने अपने भाई खोये हैं और जिन बच्चों ने अपने माँ-बाप खोये हैं, उन सभी से हाथ जोङकर माफी चाहता हूँ। आज से वे हमें ही सब-कुछ मानें….हम आपकी हर जरुरत पूरी करेंगे। अब हम जीवन भर आपकी सेवा कर अपने पापों का प्रायश्चित करेंगे।”

यह सुनते ही सभी डाकुओं ने हथियार फैंक दिये और हाथ जोङकर क्षमा-याचना करने लगे- “आज तक हमारी कोई जिन्दगी नहीं थी, लेकिन अब हम भी आप लोगों के बीच रहकर आत्मसम्मान का जीवन जीयेंगे। आज तक हम केवल अपने लिए जीते थे, किन्तु अब आप लोगों की तरह समाज के बीच रहकर दूसरों के लिए जीयेंगे….!”
सभी लोग स्तब्ध थे कि ये हृदयहीन राक्षस एक क्षण में देवता कैसे बन गये?

तिवारी जी के चेहरे पर संतोष का भाव था। वे ग्रामीणों से मुखातिब होकर बोले-“अब इन लोगों का पत्थर जैसा कठोर हृदय पिघल चुका है…दया-रहम जाग गई है…इनका हृदय परिवर्तित हो गया है। …अब ये डाकू नहीं, आपकी और मेरी तरह साधारण इंसान हैं….अपने ही भाई।”- कहकर उन्होंने संग्रामसिंह को गले लगा लिया।

इस घटना के बाद संग्रामसिंह का हृदय पूरी तरह से परिवर्तित हो गया। उसने लूट का सारा माल गरीबों में बाँट दिया और गिरोह साहित खुद भी किसी बेसहारा का सहारा बनकर सम्मान का जीवन जीने लगा।

लेखक : मेघराज रोहलण ‘मुंशी’